Wednesday, February 23, 2011

चकर्व्युह है धरम का
तोड़ सके तो तोड़ 
बिखरे से समाज को इंसानियत से जोड़
सदियों से पीड़ित शोषित जो
बैठे है अंधेरों में ,शांत सी लहरों से मन को
इन्कलाब क़ि और मोड़  
बहुत  हुआ जुल्म सितम 
चुप्पी क़ि कड़ियाँ तोड़ के 
आक्रोश क़ि कड़ियाँ जोड़ 
मुठियों को भींच ले ,और इरादों को बुलंद कर
अधिकारों क़ि जंग है ,दौड़ सके तो दौड़ 

1 comment:

  1. welcome...n congrats for ur poetic excellence

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